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क्या है बुद्ध-शिक्षा - तीसरा व्याख्यान, भाग-1

तीसरा व्याख्यान, भाग-1....
(दि. 14 अक्टूबर, 1951)

— थ्रे सिदु सयाजी ऊ बा खिन

(रंगून के पगोडा रोड स्थित मेथोडिस ्ट गि रजाघर म ें धर ्म जि ज्ञासओु ंकी एक सभा में बर्मा सरकार के महालेखापाल (अकाउंटेंट जनरल) कम्मट्ठानाचार्य थ्रे सिदु बा खि न ने तीन व्या ख्या न दिय े, जि नका अनु. यहां क्रमशः प्रकाशि त कर रहे हैं।)

— (अनु.: स. ना. गोयन्का )

देव ियो और सज्जनो!

जब तक मैं ‘‘प्रतीत्य समुत्पाद ’’ (सकारण उत्पत् ति) और ‘पट्ठान’ (कार्य-कारण संबंध) के नि यमों पर थोड़ा भी प्रकाश न डाल लं,ू तब तक ‘‘क्या ह ै बुद्ध-शि क्षा’’ विषय पर मेरा वक्तव्य पूरा नहीं माना जायगा।

अपने प्रथम प्रवचन के अंत में मैंने बताया था कि किस प्रकार तपस्वी राजकुमार सिद्धार्थ सम्यक संबोधि प्राप्त कर सम्यक संबुद्ध हुआ। आपकी स्मृति ताजा करने के लि ए मैं अपने उक्त कथन को फिर दुहराता हूं :–

‘‘राजकुमार सिद्धार्थ सचमुच सम्यक संबोधि प्राप्त कर सम्यक संबुद्ध बन गया -- जाग्रत, प्रकाशमान, और सर्व ज्ञ। जाग्रत ऐसा कि जिस की तुलना में बाकी सारे लोग सो रहे थे और स्वप ्निल थे। प्रकाशमान ऐसा कि जिस की तुलना में बाकी सारे लोग अंधकार में भटक रहे थे और ठोकरें खा रहे थे। सर्व ज्ञ ऐसा कि जिस की तुलना में बाकी सारे लोग केव ल अविद्या की ही जानकारी रखते थे।’’

सारे धर्म संप्रदाय नि स्संदे ह सत्य का ही मार्ग दिखाने का दावा करते हैं। बुद्ध-शि क्षा के अनुसार भी जब तक कोई परमार्थ सत्य (चार आर्य सत्यों) का स्वयं साक्षात्का र नहीं कर लेता तब तक अविद्याग्रस्त ही माना जाता है। यह 'अविद्या' ही है जो कि संस्का रों को जन्म देती है। इन संस्का रों से ही सभी प्राणि यों में विज्ञानरूपी जीवनधारा प्रवाहि त होती है। विज्ञानरूपी जीवनधारा के स्थापि त होते ही नाम और रूप स्वत: अन्यो न्याश् रित हो जाते हैं। नाम और रूप के संयोग से शरीर बनता है और फिर षट् इंद्रियों (षड़ायतन) का विकास होता है। इन इंद्रियों से स्पर्श उत्पन्न होता है और इंद्रियों द्वारा विषयों का स्पर्श होते ही वेद ना (सुख, दु:ख और असुख-अदु:ख) उत्पन्न होती है। वेद ना से तण्हा (तृष्णा ) उत्पन्न होती है और तण्हा से उपादान (तीव्र लालसा)। यह उपादान ही है जो कि भव का कारण है और भव ही जन्म, जरा, रोग, मृत्यु, शोक, परिताप, पीड़ा आदि का कारण है जो कि सब के सब दु:ख रूप हैं।

इस प्रकार बुद्ध ने जान लि या कि दु:ख स्कंध का मूल कारण अविद्या ही है।

भगवान ने कहा:--

‘‘अविद्या प्रत्यय (कारण) है संस्का रों का,
संस्का र प्रत्यय है विज्ञान का, 
विज्ञान प्रत्यय है नाम-रूप का,
नाम-रूप प्रत्यय है षड़ायतन का, षड़ायतन
प्रत्यय है स्पर्श का,
स्पर्श प्रत्यय है वेद ना का,
वेद ना प्रत्यय है तृष्णा का,
तृष्णा प्रत्यय है उपादान का,
उपादान प्रत्यय है भव का,
भव प्रत्यय है जन्म का,
जन्म प्रत्यय है जरा, रोग, मृत्यु, शोक, परिताप, पीड़ा आदि का,
जो कि सब दु:ख ही है।’’

इस उत्पत् ति-शखंृ ला का ही नाम प्रतीत्य समतु ्पाद ह ै और हम देख ते ह ैं कि सभी उत्पत् तियों के मूल में अविद्या है। अविद्या यानी सत्य के संबंध में अज्ञानता। वैसे मोटे तौर पर हम कह देते हैं कि दु:ख का कारण तृष्णा है। बहुत सीधी-सी बात है। हमें कोई वस्तु चाहि ए। तो हमारे मन में उसके प्रति तृष्णा जागती है। तृष्णा जागते ही हम उसे पाने के लि ए प्रयत्न करने लगते हैं, नाना दु:ख उठाने लगते हैं। परंतु मात्र इतना जान लेना ही पर्या प्त नहीं है। भगवान ने कहा है-- ‘‘ये जो पांच स्कंध हैं, ये जो केव ल नाम और रूप से ही बने हुए हैं, ये भी दु:ख ही हैं।’’ बुद्ध-शि क्षा में दु:ख आर्य सत्य की पूरी जानकारी तब मानते हैं जबकि नाम और रूप को-- बाहर और भीतर-- उनके वास्तव िक स्वरूप में देख लि या जाय, न कि बाह्य दिखावट ी रूप में।

अत: दु:ख आर्य सत्य को समझने के लि ए यह आवश्यक है कि पहले इसका अनुभव कि या जाय। एक उदाहरण लें। विज्ञान ने हमें सिखाया है कि संसार में जो कुछ विद्यमान है वह असंख्य विद्युत कणों के संचालन द्वारा उत्पन्न प्रकंपन मात्र है। परंतु हममें से कि तने इस तथ्य को स्वी कार करने के लि ए तैयार हैं कि हमारे शरीर पर भी यही सिद्धांत लागू होता है। तो क्यों न हम इसी तथ्य का अनुभव करके देख ें, जो कि स्वयं हमसे संबंधि त है। परंतु इसके लि ए आवश्यक है कि हम अपनी शारीरिक स्थिति से ऊंचा उठें। हम अपनी मानसिक शक्तियों का विकास करें और इतना करें कि वस्तुस्थिति का सही नि रीक्षण करने योग्य हो जायँ। विकसित मानसिक शक्तियों द्वारा हम इतनी गहराई तक देख सकते हैं जो कि आधुनि कतम वैज्ञानि क यंत्रों द्वारा भी संभव नहीं है। यदि ऐसा है तो क्यों न हम अपने भीतर एक दृष्टि डालें और देख ें कि वहां क्या हो रहा है। देख ें, ये अणु, परमाणु, विद्युत्कण आदि किस प्रकार तेजी से क्षण-क्षण परिवर्ति त हो रहे हैं-- अनवरत, अनंत। परंतु इस प्रकार भीतर की ओर देख ना सरल नहीं है।

मैं अपने एक शि ष्य की डायरी के कुछ एक उद्धरण पढ़कर सुनाता हूं, जिससे आपको भान होगा कि यह आंतरिक दु:ख वस्तुत: क्या है। उद्धरण इस प्रकार है :–

‘‘21-8-51, जैसे ही साधना आरंभ की, मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो कोई मेरे सिर में बरमे से छेद कर रहा है और फिर लगा कि सारे सिर पर चींटि यां चलने लगी हैं। मेरी इच्छा हुई कि म ैं अपना सिर खजु ला लं।ू
परंतु गुरुजी ने ऐसा करने से मना कर दिया। मैंने देख ा घंटे भर में जामुनी रंग से रंजि त चमचमाते नीले रेडि यम परमाणु धीरे-धीरे मेरे सारे शरीर में समा गये। ध्या नगुहा में लगातार तीन घंटे तक साधनारत रहते हुए मैं (बाहरी वातावरण से ) बि ल्कुल संज्ञाशून्य हो गया और तभी मेरे शरीर में एक भयानक झटका-सा लगा। मैं बि ल्कुल भयभीत हो जाता, परंतु मेरे गुरु महाराज ने मुझे साधना में लगे रहने के लि ए प्रोत्साहि त कि या। मैंने अनुभव कि या कि मेरा सारा शरीर उत्तप्त हो गया है और मेरे अंग-प्रत्यंग में विद्युत की-सी सूइयां चुभने लगी हैं।

‘‘22-8-51, आज भी मैं लगभग तीन घंटे साधना करता रहा। मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि मेरा सारा शरीर आग की लपट ों में समाया हुआ है। मैंने देख ा कि नीले और जामुनी रंग के कि रण स्फुलि ंग मेरे सारे शरीर में बि ना किस ी लक्ष्य के ऊपर से नीचे की ओर गति मान हैं। तब मेरे गुरु ने मुझे समझाया कि शरीर में यह जो (अनवरत) परिवर्त न हो रहा है, यह ‘अनि च्च’ (अनि त्य) है और इससे जो पीड़ा हो रही है, यही दु:ख है। हमें इसी पीड़ा या दु:ख से विमुक्त होना है।

‘‘23-8-51, गुरुजी ने मुझे आदेश दिया कि बि ना प्रकाश-कि रणों के सहारे मैं अपनी छाती पर ध्या न कें द्रित करूं और यह भी बताया कि अब हम शरीर दर्श न (कायानुपश्यना) की स्थिति पर पहुँच रहे हैं। मैंने ऐसा ही कि या और इस निर्ण य पर पहुँचा कि हमारा शरीर दु:ख से परिपूर्ण है।’’

समाधि (एकाग्रचित्त ) के बल से विपश्यना द्वारा हम भीतर की ओर देख ते हैं और आणविक प्रकंपन, विकीर्णन और संघर्षण की तीव्र वेद ना महसूस करते हैं। तभी हमें इस ‘‘आंतरिक दु:ख’’ का यथार्थ अनुभव होता है। इस सत्य को न जानना ही अविद्या है। और इसे अपने परमार्थ रूप में जान लेना ही अविद्या का नाश कर लेना है; उस अविद्या का जो कि दु:ख की जननी ह,ै जो कार्य-कारण शखंृ ला द्वारा इस जीवनधारा को प्रवाहित करती है, जो स्वभाव से ही जरा, व्याधि , पीड़ा, परिताप और चि ंता आदि से परिपूर्ण है।

यह हुआ प्रतीत्य-समुत्पाद और दु:ख के मूल उद्गम का वर्ण न। अब हम कार्य-कारण संबंध के नि यमों पर भी जरा दृष्टिपात करें। इसे भगवान ने अभि धम्म पिट क की पट्ठान नीति में आख्या त कि या है। भगवान ने सम्यक संबोधि प्राप्त कर जब 49 दिनों तक अनवरत ध्या न कि या तब इसी सिद्धांत का विश्लेषणात्मक चि ंतन करते हुए उनके शरीर से छह-रंगी कि रणें प्रस्फुटि त हुई थीं। पालि साहि त्य में इस गंभीर विषय पर पांच सौ पृष्ठों के पांच ग्रंथ ह।ैं म ैं तो आपको इसका केव ल आभास मात्र ही दे सकंूगा।

बुद्ध-शि क्षा के कार्य-कारण सिद्धांत के मूलाधारस्वरूप 24 प्रकार के प्रत्यय माने जाते हैं। ये हैं:--

(1) हेतु प्रत्यय, (2) आलंबन प्रत्यय, (3) अधिपति प्रत्यय, (4) अनंतर प्रत्यय, (5) समानांतर प्रत्यय, (6) सहजात प्रत्यय, (7) अन्यमन्य प्रत्यय, (8) निश्र य प्रत्यय, (9) उपनिश्र य प्रत्यय, (10) पुरेजात प्रत्यय, (11) पच्छा जात प्रत्यय, (12) आसेव न प्रत्यय, (13) कर्म प्रत्यय, (14) विपाक प्रत्यय, (15) आहार प्रत्यय, (16) इंद्रिय प्रत्यय, (17) ध्या न प्रत्यय, (18) मार्ग प्रत्यय, (19) संप्रयुक्त प्रत्यय, (20) विप्रयुक्त प्रत्यय, (21) अस्ति प्रत्यय, (22) नास्ति प्रत्यय, (23) विगत प्रत्यय, (24) अविगत प्रत्यय।

अब मैं हेतु और कर्म के पारस्परिक संबंधों और उनके कारण उत्पन्न कर्मफल को जि तना समझ पाया हूं, आपको बताऊंगा।

कायि क, वाचि क अथवा मानसिक कर्म के प्रत्येक सचेतन क्षण में जो मनोस्थिति होती है, वही हेतु है। इस कारण प्रत्येक कर्म एक मनोस्थिति उत्पन्न करता है जो कि या तो कुशल है या अकुशल। बुद्ध मान्यतानुसार इन्हें ही हम कुशल धर्म, अकुशल धर्म और अब्या कत धर्म कहते हैं। ये धर्म क्या हैं? ये मानसिक शक्तियां मात्र हैं जो कि मि लजुल कर ‘संस्कार लोक’ का निर्मा ण करती हैं जिस का कि वर्ण न मैं प्रथम व्या ख्या न में कर आया हूं।

कुशल शक्तियां-- ऐसी धनात्मक शक्तियां हैं जो कि दान, सेव ा, श्रद्धा , भक्ति, चित्त -विशुद्धि जैसी सद्वृत्तियों से अनुप्रेरित कायि क, वाचिक और मानसिक शुभ कर्मों द्वारा उत्पन्न होती हैं।

अकुशल शक्तियां-- ऐसी ऋणात्मक शक्तियां हैं जो कि तृष्णा , एषणा, क्रोध, घृणा, असंतोष, प्रवंचना जैसी दुष्प्रवृत् तियों से अनुप्रेरित कायिक, वाचिक और मानसिक अशुभ कर्मों द्वारा उत्पन्न होती हैं।

अब्याकत शक्तियां-- ये न कुशल हैं, न अकुशल। यह अरहंतों की नित्य अवस्था है। उनकी जिन्होंने कि अविद्या को पूर्ण तया छिन्नमूल कर दिया है। अरहंत की इंद्रिय जब किस ी इंद्रियगम्य विषय को स्पर्श करती है तो फलस्वरूप जो वेदना (अनुभूति ) उत्पन्न होती है, वह न कुशलधर्मा है, न अकुशलधर्मा । अत: इससे कोई तृष्णा मूलक गंभीर प्रभाव नहीं पड़ सकता। वैसे ही जैसे कि सतत परिवर्तनशील प्रवाहमय जल पर कोई छाप नहीं पड़ सकती। अरहंत के लिए तो शरीर का संपूर्ण ढांचा ही सतत परिवर्तनशील परमाण ु पंजु ह ैऔर इसलिए इस पर पड़ी हुई कोई भी छाप, इस पंजु के साथ ही विघटित हो जाती है।

आओ, अब हम देख ें, सहेतुक कर्मों द्वारा उत्पन्न कुशल और अकुशल शक्ति यों का विभिन्न प्राणी लोकों से क्या संबंध है। परंतु पहले आपको प्राणी लोकों का विभाजन समझा दूं। ये हैं :--

(1) अरूप और रूप ब्रह्मलोक-- ये लोक इद्ंरियजन्य वासनाओ ं के प्रभाव से परे हैं। चित्त के चार महान गुण धर्म हैं-- परम मैत्री, परम करुणा, परम मुदिता (औरों की सफ लता और उन्नति देख कर मुदित होना) और परम उपेक्षा। इन चित्त धर्मों से नितांत विशुद्ध, तेजस्वी , विपुल आनंदमयी, शांत और लघिष्ठ (हलकी) मानसिक शक्तियों का प्रजनन होता है जो कि इन सर्वोच्च प्राणीलोक में स्थापित होती हैं। इसलिए यहां के रूप ब्रह्मलोकों के भौतिक पद ार्थ अत्यंत सूक्ष्म हैं और यहां केवल दीप्ति मात्र है। यही कारण है कि इन लोकों के निव ासियों के विमान और शरीर, स्थूल भौतिक पद ार्थों से नहीं बने हैं बल्कि दीप्ति या प्रकाश मात्र से बने हैं। अरूप ब्रह्मलोकों में तो भौतिकता का लेशमात्र भी नहीं है।

(2) काम वासना लोक-- ये तीन हैं -- (1) देव लोक, (2) मानव लोक, और (3) अधोलोक

(1) देवलोक-- वे सारे कायिक, वाचिक या मानसिक कुशल कर्म जो कि कि ंचित भी रागरंजित हैं, ऐसी मानसिक शक्तियों का सृजन करते हैं जो कि बहुत कुछ विशुद्ध, तेजस्वी, आनंदमयी और लघिष्ठ हैं। ये शक्तियां ऐसे उच्च देव लोकों में स्थापित होती हैं जहां का भौतिक पद ार्थ भी बहुत कुछ सूक्ष्म, प्रकाशमान, आनंदमय और लघिष्ठ (हलका) है। तभी तो इन देव लोकों के निव ासियों के शरीर भी सूक्ष्म और वायव्य हैं। अलग अलग देव ों की शारीरिक सूक्ष्मता, तेजस्विता, वर्ण लावण्यता अलग-अलग देव लोक के अनुरूप कम या अधिक है। साधारणतया ये देव तब तक स्वर्गीय आनंद का उपभोग करते हैं जब तक कि उनके कुशल कर्मों की संचित मानसिक शक्तियां क्षीण नहीं हो जातीं और ऐसा हो जाने पर अधिकतर ये लोग निम्नतर लोकों में ही पुनर्ज न्म ग्रहण करते हैं। विशिष्ट विकसित प्राणि यों की बात अलग है।

(2) मानवलोक की चर्चा मैं पीछे करूंगा। (3) पहले अधोलोक की चर्चा कर लेना चाहता हूं।

(3) अधोलोक-- समस्त कायिक, वाचिक और मानसिक अकुशल (द्वेषपूर्ण और पापपूर्ण ) कर्म ऐसी मानसिक शक्तियों का सृजन करते हैं जो कि स्वभाव से ही अपव ित्र, अंधकारपूर्ण , जलनशील, गरिष्ठ , कठोर
और रुक्ष हैं। इनमें भी जो सर्वाधिक अपव ित्र, अंधकारपूर्ण, जलनशील, गरिष्ठ , कठोर और रुक्ष मानसिक शक्तियां हैं, वे चार अधोलोक के निम्नतम भाग, निरय (नरक) लोक में स्था न पाती हैं। स्वभावत: इन लोकों में जो भौतिक पद ार्थ हैं वे कठोर, रुक्ष, उत्तप्त और अप्रिय हैं। ये उन सब प्राणि यों के लिए हैं जो कि (अपने दुष्कर् मों के परिणामस्वरूप) ऐसे अधोलोकों के लिए नियत हैं। मानवलोक इन अधोलोकों से जरा ही ऊपर है। पशु-पक्षि यों को छोड़ कर इन अधोलोकों के अन्य प्राणी दृश्यमान नहीं हैं, साधारण नेत्रों से नहीं देखे जा सकते। हां, जिसने समाधि-शक्ति द्वारा दिव्य-दृष्टि प्राप्त कर ली है, वह इन्हें अवश्य देख सकता है। यहां दु:ख की ही प्रधानता है--- शारीरिक भी और मानसिक भी। ये लोक देव लोकों से सर्व था विमुख हैं।

(2) मानवलोक-- अब मैं मानव लोक की थोड़ी-सी चर्चा करूंगा। यह लोक स्वर्ग और नरक के बीच स्थित है। यहां हम दु:ख और सुख दोनों का अनुभव करते हैं। इनकी न्यूनाधिक मात्रा हमारे पूर्व कृत कर्मों पर निर्भर करती है। यहीं से हम अपनी मानसिक अवस्था को उन्नत करके ऊर्ध्व लोकों से अपनी पूर्व-संचित कुशल मानसिक शक्तियों को खींच सकते हैं, उनसे बल प्राप्त कर सकते हैं। यहीं से हम दुराचार और दुष्प्रवृत्तियों की गहराइयों तक जा सकते हैं और अधोलोक की शक्तियों से संतुलन स्थापित कर सकते हैं। न यहां ऊर्ध्व लोकों का-सा एकांतिक सुख है और न अधोलोकों का-सा एकांतिक दु:ख। आज जो संत है, कल वही महान दुष्ट भी हो सकता है। आज जो धनी है, कल वही निर्धन भी हो सकता है। यहां जीवन में बहुत स्पष्ट उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। किस ी की भी स्थिति अपरिवर्तनीय नहीं है, स्थिर नहीं है। न मनुष्य की, न परिव ार की, न समाज की और न राष्ट्र की। सब के सब कर्म सिद्धांत के आधीन ह।ैं चकिंू कर्म की उत्पत्ति मन से होती है और मन सतत परिवर्त नशील है, अत: कर्म विपाक का भी परिवर्त नशील होना अनिव ार्य है।

यह जो धरती की ओर खिंचाव का अर्थात गुरुत्वा कर्षण का सिद्धांत है, इसका मूल कारण यही है कि हमारे पांव तले की धरती में विभिन्न प्रकार की दुष्ट मानसिक शक्तियां समायी हुई हैं। जब तक मनुष्य में अशुद्धता निहित है, और साधारणतया तो ऐसा है ही, तब तक तो उसे यह अधोमुखी खिंचाव सहना ही होगा। और यदि मृत्यु के क्षण उसकी मनोस्थिति अधोलोक की इन मानसिक शक्तियों से संबद्ध हुई तो उसका पुनर्जन्म स्वत: उसी लोक में होगा-- अपने अकुशल कर्मों के संचय का भुगतान देने के लिए। दूसरी ओर, मृत्यु के क्षण यदि उसकी मनोस्थिति मानव लोक की शक्तियों से संबद्ध रही तो उसका भावी जन्म पुन: मानवलोक में ही हो सकता है। और यदि मृत्यु के क्षण उसकी मनोस्थिति अपने कुशल कर्मों की स्मृति में लीन रही तो उसका पुनर्ज न्म साधारणतया देव लोक में ही होगा जहां कि वह अपनी कुशल मानसिक शक्तियों द्वारा संचित जमा खाते की कर्म-पूंजी का उपभोग कर सके। इसी प्रकार मृत्यु के क्षण यदि किस ी का चित्त नितांत विशुद्ध और प्रशांत है, काम-राग-छंद से मुक्त है, तो वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध-शिक्षा में ‘कर्म’ का हिस ाब-कि ताब कि तना यथार्थ है, सुतथ्यपूर्ण है, परिछिन्न है।

सज्जनो और सन्नारियो! बद्धु की शिक्षाओ ं का यही सार ह।ै आप जानना चाहगें े कि इन शिक्षाओ ं से किस ी व्यक्ति को कि तना लाभ पहुचँता है? उतना ही जितना कि वह इनका पालन करता है। यह नियम जैसे व्यक्ति पर, वैसे ही परिव ार, समाज और राष्ट्र पर भी लागू होता है। हम देख ते हैं कि कुछ लोग इसलिए बुद्धानुयायी हैं कि उन्हें इस धर्म पर श्रद्धा है और कुछ लोग इसलिए कि वे इसका पालन करते हैं। परंतु अधिकांश लोग तो ऐसे हैं जो कि बुद्धानुयायी परिव ार में जन्म लेने के कारण ही अपने आपको बुद्धानुयायी कहते हैं। लेकिन वस्तुत: जो लोग बुद्ध-शि क्षा का ठीक-ठीक पालन करते हैं वे ही अपनी नोदशा और मानसिक दृष्टिकोण का सुधार कर सकते हैं। अधिक नहीं तो कोई केवल पंचशील का ही पालन करे। वह कुछ सीमा तक बुद्ध का अनुयायी कहा जायगा। बर्मा के बुद्धानुयायी यदि केवल पंचशील का ही पालन करें तो देश में यह जो आंतरिक गृह कलह हो रहा है वह समाप्त हो जाय। लेकिन एक और भी कठिनाई है और वह है शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति । कोई भी हो, उसे जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएं तो चाहिए ही। अधिकांश लोगों की दृष्टि में तो जीना ही परम आवश्यक है। उनके लिए जीवन से अधिक मूल्यव ान और कुछ भी नहीं है। इसलिए वे अपनी तथा अपने परिव ार वालों की जि ंदगी बनाये रखने के लिए किस ी भी प्रकार के अनुशासन का नियमभंग करने से नहीं हि चकि चाते, चाहे वह धार्मि क अनुशासन हो अथवा सरकारी। परंतु वे यह नहीं सोचते कि वर्तमान जीवन के कष्टों का उत्तरदायित्व उनकी अपनी पूर्वकालीन अकुशलवृत्तियों पर ही निर्भर है।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि अधि क से अधि क शुद्ध और कुशल मानसिक शक्तियों का सृजन और विकास कि या जाय ताकि मानव समाज पर छायी हुई अकुशल और दुष्ट मानसिक शक्तियों का सामना
कि या जा सके। परंतु यह काम इतना सरल नहीं है। बि ना सद्गुरु की सहायता के शुद्ध मानसिक स्थिति के स्तर तक नहीं पहुँचा जा सकता। दुष्ट प्रवृत् तियों का सामना करने के लि ए यदि हमें प्रभावशाली शक्तियां चाहि ए तो वे धर्म के मार्ग से ही प्राप्त की जा सकती हैं। आधुनि क विज्ञान ने हमें, भला या बुरा जैसा भी है, यह अणुबम दे दिया है। मनुष्य की बुद्धि का अत्यंत चमत्का रपूर्ण , परंतु साथ ही अत्यंत भयावह आविष्का र। क्या मनुष्य अपनी बद्धिु का प्रयोग सही दिशा म ें कर रहा ह?ै वह बद्धु की मान्यताओ ं के अनुसार अच्छी मानसिक शक्तियों का सृजन कर रहा है? या बुरी का? यह तो स्वयं हमारी इच्छा शक्ति पर निर्भ र करता है कि हम अपनी बुद्धि को कैसे विषय पर लगाएं और किस प्रकार लगाएं। केव ल बाह्य पद ार्थजन्य आणविक शक्ति की विजय में ही अपनी बुद्धि लगाने की बजाय हम उसे आभ्यंतरिक आणविक शक्ति की विजय में भी क्यों न लगाएं? इससे हमें आंतरिक शांति मि लेगी जिसे प्राप्त कर हम औरों को भी वितरित कर सकें गे। हममें से ऐसी विशुद्ध और शक्तिशाली मानसिक शक्तियां प्रवाहि त
होंगी जो कि हमारे चारों ओर छायी हुई दुष्प्रवृत् तियों का सफ ल प्रति रोध कर सकें गी। एक दीपक के प्रकाश में सारे कमरे के अंधकार को दूर कर सकने की शक्ति है। इसी प्रकार किस ी एक व्यक्ति में जाग्रत कि या गया प्रकाश अनेकों के अंधकार को दूर कर सकने की क्षमता रखता है।

कोई ऐसा माने कि बुराई के उपकरण से भला हो सकता है तो उसका मानना भ्रांति मात्र है, मृगमरीचि का मात्र है। कोरिया के मामले को ही लें। अब तक दोनों ओर से शायद दस लाख से भी अधि क लोग मारे जा चुके हैं। इतना होने पर भी क्या शांति के समीप पहुँच पाये हैं? इससे हम यही सबक सीखते ह ैं कि ऐसी समस्या ओ ंका एक ही समाधान ह-ै - मानवी मनोवत्ृ ति को धर्म के माध्यम से परिवर्ति त किय ा जाय। भौति क पद ार्थों पर ही प्रभुत्व प्राप्त कर लेना पर्या प्त नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि मन पर भी प्रभुत्व स्थापि त कि या जाय।

क्रमशः...

(सयाजी ऊ बा खि न जर्नल से साभार)

Year / Month: 
May, 2018
Language: 
Dohas: 

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SpfÔ hI SŸyAn ‰yUM, r´o Simt duK Bog¦ kþArf to jA»yo nh™, ikþf ivD imxsI rog?

Words of Dhamma: 

“sˆbe s±ArA duEKA”it, ydA p²YAy p‰sit¦ ST inVˆb®dit duEKe, as mŸgo ivsuiÂyA‹
DýmpdpAiL- 278, mŸgvŸgo

- “sAre sM‰kþAr du:K hÓ” (yAnI, jo kuþC w¥pÚA hotA hÔ, vh nAÕvAn hone keþ kþArf du:K hI hÔ)¦ qs (soecAqQ) kþo jb kþoqQ (ivpÎynA-) áAôA se deK (-jAn) letA hÔ, tb wskþo sBI du:KAš se inveQd áAAðA hotA hÔ (STAQt, du:K-öe© keþ áAit BoEtABAv xUx jAtA hÔ) - aesA hÔ yh ivÕui (ivmuVEt) kþA mAgQ!

News: 

उड़ीसा के INS CHILIKA में नेवी के जवानों को आनापान

नेव ी के लगभग 3000 (तीन हजार) प्रशि क्षणार्थी जवान और अधि कारियों को विपश्यना का परिचय कराते हुए आनापान की साधना सिखायी गयी और सभी समूह-प्रमखु ों ने नि त्य-नि यमि त अभ्यास की जि म्मेद ारी ली। यह हमारे देश की सभी से नाओ ं के जवानों के लि ए एक उदाहरण स्वरूप है। सबका मंगल हो! --(धम्म भुबनेश्वर वि. कें द्र) 

Global Vipassana Pagoda related: 

धम्मालय-2 (आवास-गृह) का निर्माण कार्य

पगोडा परिसर में ‘एक दिवसीय’ महाशिव िरों में सुदूर से आने वाले साधकों तथा धर्मसेव कों के लिए रात्रि-विश्राम की नि ःशुल्क सुविधा हेतु “धम्मा लय-2” आवास-गृह का निर्माण कार्य होगा। जो भी साधक-साधिका इस पुण्यकार्य में भागीदार होना चाहें, वे कृप या संपर्क करें:-

1. Mr. Derik Pegado, 9921227057. or 2.Sri Bipin Mehta, Mo. 9920052156, A/c. Office: 022-62427512/ 62427510; Email: audits@globalpagoda.org; Bank Details: ‘Global Vipassana Foundation’, Axis Bank Ltd., Sonimur Apartments, Timber Estate, Malad (W), Mumbai - 400064, Branch - Malad (W). Bank A/c No. - 911010032397802; IFSC
No.- UTIB0000062; Swift code: AXISINBB062.

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पूज्य गुरुजी बार-बार कहा करते थे कि किस ी धातु-गब्भ पगोडा पर रात भर रोशनी रहने का अपना विशेष महत्त्व है। इससे सारा वातावरण दार्घकाल तक धर्म एवं मैत्री-तरंगों से भरपूर रहता है। तदर्थ सगे-संबंधि यों की याद में ग्लो बल पगोडा पर रोशनी-दान के लि ए प्रति रात्रि रु. 5000/- निर्धा रित कि ये गये हैं। संपर्क - उपरोक्त पते पर...

ग्लोबल पगोडा में सन 2018 के एक-दिवसीय महाशिविर

29 जुलाई- आषाढ़ी पूर्णिम ा, रविवार 30 सितंबर- शरद पूर्णिम ा एवं पूज्य गुरुजी की पुण्य-तिथि (29 सितंबर) के उपलक्ष्य में एक दिवसीय महाशिव िर होंगे। समय - प्रातः 11 बजे से अपराह्न 4 बजे तक। 3 से 4 बजे के प्रवचन में बिना साधना कि ये लोग भी बैठ सकते ह।ैं बकिु ं ग के लिए कृपया निम्न फोन नंबरों या ईमले से शीघ्र संपर्क करें। कृपया बिना बकिु ं ग कराये न आयें और समग्गा नं तपो सखु ो-
सामूहिक तप-सखु का लाभ उठाए।ं

सपंर्क:
022-28451170, 022-62427544, Extn. no. 9, 82918 94644. (फोन बकिु ं ग- प्रतिदिन 11 से 5 बजे तक)
Online Regn: www.oneday.globalpagoda.org

Pali Classes: 

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dÕQn ivBAg, ôAneÎvr Bvn, muMbqQ ivÎv iv¬Aly, iv¬AngrI, kþAlInA kþäýps, sAMtAkRuþj (pU.)
muMbqQ- 400098, xeil.:þ 022-26527337¦ iv¬ATIQ Spne sAT sixQiPþkeþx (pRmAfp©) kþI
CAyApRit SÈr pAspoxQ sAqQj Pþoxo tTA nAmAMkþn PþIs 1670/- rOE. SvÎy lAyš¦ SiDkþ
jAnkþArI keþ ilye sMpkQþ kþrš — (1) ivpÎynA ivÕoDn iv®yAs, Ÿlobl pgozA:þkþAyAQlyþ 022-
62427560, (subh 9:30 se sAyM. 5:30), (2) üImtI bljIt lAMbA - 9833518979,
(3) kuþ. rAjüI - 9004698648, (4) üImtI SlkþA veMguleQkþr - 9820583440.

विपश्यना विशोधन विन्यास, ग्लोबल पगोडा में पालि-अंग्रेजी 8 सप्ताह का आवासीय पाठ्यक्रम वर्ष 2018

अवधि : 14 जुलाई से 11 सितंबर तक, उपरोक्त कार्यक्रम की योग्यता जानने के लिए इस शंृखला का अनुसरण करे- http://www.vridhamma.org/Theory-And-Practice-Courses.

अधिक जानकारी के लिय े संपर्क करें-
श्रीमती बलजीत लांबा-9833518979,
श्रीमती अल्का वेंगुर्लेकर- 9820583440,
श्रीमती अर्चना देशपांडे- 9869007040,
VRI Office : 022-62427560 (9:30AM to 5:30PM),
Email: Mumbai@vridhamma.org

Edition Details: 

“विपश्यना विशोधन विन्यास” के लि ए प्रकाशक, मुद्रक एवं संपादक: राम प्रताप यादव, धम्मगि रि, इगतपुरी- 422 403, दूरभाष :(02553) 244086, 244076.
मुद्रण स्थान : अपोलो प्रिंट िंग प्रेस, 259, सीकाफ लिमिट ेड, 69 एम. आय. डी. सी, सातपुर, नाशि क-422 007. बुद्धवर्ष 2562, अधि क ज्येष्ठ पूर्णिम ा, 29 मई, 2018

वार्षिक शुल्क रु. 30/-, US $ 10, आजीवन शुल्क रु. 500/-, US $ 100. “विपश्यना” रजि. नं. 19156/71. Postal Regi. No. NSK/RNP-235/2018-2020

Posting day- Purnima of Every Month, Posted at Igatpuri-422 403, Dist. Nashik (M.S.)

Registered No. NSK/RNP-235/2018-2020